डोर



 कुछ तो है मेरे पास तेरा 

न जाने कौन सी डोर है

जिससे आज भी बँधी हूँ मैं । 

तेरे प्यार का धागा,

मेरे विश्वास का धागा, 

और उस पर लगी है 

जिम्मेदारी की गाँठ....

शायद इस जाल में बुनी हूँ मैं।

बड़ी मजबूत पकड़ है 

इन महीन धागों की, 

महसूस होने नहीं देती कि 

इनसे ही बँधी हूँ मैं ।

मुझमें तू ऐसा समा गया 

जैसे जी भर कर मुझे चाह गया 

सुबह की सुनहरी धूप सी 

खिली हुई हूँ मैं ।

मेरे दिल के आंगन में 

तेरे कदमों के निशान चमकते हैं 

तेरे ही कदमों के निशां पर

बेखौफ सी चली हूँ मैं। 

CONVERSATION

0 Comments:

एक टिप्पणी भेजें

COMMENTS