क्यारी



मस्ती वाला " इतवार " भी कभी कभी आता है, सुबह थोड़ी सी देर से उठना, और बच्चों से पूछ कर उनकी मर्ज़ी का बढ़िया सा नाश्ता बनाना, बच्चों के चेहरे की खुशी मे ही खो जाती है माँ, सुरभि सुबह ये ही सब सोच मे डूबी घर की कामो को निपटाने मे लगी हुई थी। मन खुद से बातें कर रहा था की जैसे मैं अपने बच्चों की चेहरे की खुशी देख कर खुश होती हूँ, ऐसे ही मेरी माँ भी होती होगी। 


ये ही सब बातें सोचते हुए कब घर के काम निपट गए पता ही नही चला। चालीस की उम्र पार करने की बाद भी पीहर का मोह नही छुटता , ऐसा सोचना शायद गलत था की उम्र चालीस हो या अस्सी, मायके का मोह तो हर उम्र मे पूरे बहाव मे रहता है। मन मे ख्याल आया की माँ को भाई भाभी और छोटे छोटे भतीजा भतीजी को देखे हुए भी बहुत दिन हो गए, अपने घर की कामों मे और अपने बच्चों की पढ़ाई की कारण, जाना हो नही पाता है। 


तभी मन मे आया की आज इतवार है, घर मे सब मिलेंगे, आज पीहर चली जाती हूँ, लेकिन जाने की लिए पहले पवन से भी तो पूछना पड़ेगा, सुरभि के पति " पवन " एक सरकारी विभाग मे कार्यरत  है और दो बच्चों के साथ हँसता खेलता परिवार है ससुर काफी समय पहले गुजर गए थे सासू माँ के साथ परिवार भी "वट वृक्ष" की छाया मे पल रहा है, जिस घर मे बुजुर्ग खुश रहते हो वहाँ दुनियाँ की सब खुशियाँ दरवाजे पर खड़ी दस्तक देती है ऐसा ही परिवार है सुरभि का।


सुरभि का मन खुद से ही बातें कर रहा था की "यूँ तो पवन कभी जाने की लिए मना नही करते थे, क्योंकि मैं भी बहुत जल्दी जल्दी घर नही जाती हूँ अपने घर मे बहुत अच्छे से रम गई हूँ मैं, फिर भी कोई भी काम या बात मैं हमेशा पवन से पूछ कर ही करती हूँ" इसीलिए मन मे आया तो सुरभि ने पवन से पूछा की " पवन क्या आज मे मम्मी से मिलने चली जाऊँ? आप बच्चों के साथ अपना संडे मना लेना",ऐसे ही हँसते हुए सुरभि  पवन से बोल रही थी, तभी पवन ने भी साधारण से जवाव मे हामी भर दी और कहा की "चली जाओ"।  अब सुरभि का मन ऐसी उड़ान भरने लगा की, कुछ भी समय न लगे और वो घर पहुँच जाये, अपने कदमों को तेज़ किया और मन की गति को थोड़ा सयंम मे रखते हुए घर का काम निपटा कर उसने उड़ान भर ली।


सुरभि के घर का सफ़र ज्यादा लंबा नही था फिर उसको ऐसा लग रहा था की बहुत दूर से आई है,और बहुत दूर तक जाना है, उसके मन मे ये ही सब चल रहा था की माँ को तो पता भी नही है की मैं घर आ रही हूँ, आज वैसे दोनो भाईयों की छुट्टी है, पर कहीं ऐसा न हो की वो कहीं बाहर गये हो,उनका भी तो मेरी ही तरह संडे है, मैं बिना बताये जा रही हूँ, चलो कोई बात नही, इतने बड़े परिवार मे कोई न कोई तो मिलेगा ही,दोनों ही भाई बाहर नही जायेंगे, अपने मन को खुद ही सवाल मे घेर कर खुद ही जवाब देती रही और सफ़र तय होता रहा, और सोच रही थी की ऐसे अचानक से देख कर सबके चेहरे पर क्या भाव होंगे? 


अपने घर के पास पहुँचते ही आस पास के लोग देख कर मिलने लगे, बहुत दिन मे आई  हो सुरभि, बहुत दिन मे आई हो दीदी, बुआ नमस्ते, सच कहूँ तो सुरभि को ये सब सुनना बहुत अच्छा लग रहा था बहुत अपनापन, एकदम बचपन मे पहुँच गई वो , गली के सभी ऑन्टी जी ,भाभीजी, दीदी ,भाई , और अंकल जी से संबोधित होने वाले सभी रिश्तों को नमस्कार करती हुई सुरभि अपने घर की दहलीज़ तक पहुँची। 


घर के दरवाजे को खटखटाने की जरूरत ही नही पड़ी क्योंकि दरवाजा पहले से ही खुला था, जैसे ही घर मे कदम रखा मम्मी का तोता बोलने लगा, जैसे उसको सुरभि के आने की आहट हुई हो। तभी घर  के आँगन मे भाई ने उसको आता देख, मुस्कुराया  और बोला "दीदी अचानक कैसे? " और सुरभि को गले लगा लिया, प्यार इतना सच्चा और अच्छा लगा शायद शब्दों मे बयान न हो पाए, मम्मी भी अचानक उसको देख कर खुश हुई लेकिन हैरान थी की वो अचानक कैसे बिना बताये आई है, सब कुछ सही तो है? 


सुरभि ने माँ को खूब प्यार किया और तसल्ली दी और कहा की"सब कुछ सही है, बस आप सब से मिलने का बहुत मन किया और मैं मिलने आ गई" । और दोनों भाभी भी देख कर खुश थी,  भतीजा, भतीजी भी बुआ बुआ करते हुए सुरभि के गले लग गये, भाभी ने छोटा सा भतीजा मेरी गोद मे दिया और बोली " कब से बुआ बुआ कर की बुला रहा है, बुआ जी सुनती ही नही हैं " सुरभि ने भी छोटे बाबू को गोद मे लिया और खूब प्यार किया। दोनों भाई मेरे आस पास बैठे मुझसे पूछ रहे थे दीदी क्या खाओगी? अलग अलग चीजों की नाम बता बता कर लिस्ट बना दी की, बोलो क्या लाये?   दोनों भाभी भी चाय नाश्ते मे जुट गई, सुरभि मम्मी के पास बैठी अपने आप को बहुत भारी भरकम महसूस कर रही थी, की आज पापा नही है लेकिन मेरी माँ के पास दो मजबूत स्तंभ है जिस पर इस घर की बुनियाद टिकी है, पापा की तस्वीर को देख कर झलकता आँसू का सैलाव मैंने पलकों पर ही रोक लिया। मम्मी को थोड़ा मुरझाया हुआ देखा,  लेकिन वो अपने पोता-पोती , बहु- बेटे, मे खुश है पर पापा की कमी तो कोई भी खुशी पूरा नही कर सकती,  लेकिन एक बात अच्छी थी समय की अनुसार माँ खुद को ढाल चुकी थी। 


सुरभि को ऐसा लग रहा था की जैसे इस घर की सब यादें और बातें उसको यहाँ आने की लिए खींच रही थी अपनी माँ के चेहरे की खुशी को देख कर सुरभि ये सोच रही थी की, "बेटी की आने की खबर सुनकर, हर माँ का मन खुश होता है, और ऐसा सोचती हैं की थोड़ी सी देर की लिए आई हुई बेटी को ना जाने क्या क्या दिखा दूँ? क्या क्या खिला दूँ? बस उनकी बेचैनी को देख कर सुरभि को ऐसा लग रहा था जैसे शायद उन्हें भी उसके आने का बहुत इंतज़ार था"।  सबके बीच मे बैठी हुई सुरभि बहुत खुश थी, और सोच रही थी की "अच्छा ही किया की आने का मन बना लिया, अगर बच्चों और गृहस्थी को थोड़ी देर की लिए एक तरफ न रखती तो शायद ये ख़ुशी जो  मैं महसूस कर रही हूँ, वो नही मिल पाती। 

सभी अपनी अपनी बातें बता रहे थे कुछ सुना रहे थे तभी अचानक उसकी निग़ाह, अपने छोटे भाई पर गई जो टकटकी बंधाये उसे देख रहा था, सुरभि ने उसकी और इशारा करते हुए कहा की " क्या हुआ भाई? "। थोड़ी देर चुप रह कर बोला की "दीदी एक बात पूछूँ? जैसे हम तो लड़के हैं, हम तो अपने घर मे अपने मम्मी और पापा की साथ ही रहते है, आज तुम बहुत दिन बाद आई हो तो तुम्हें कैसा लगा रहा है?, यहाँ से जाकर ससुराल मे रहना,कभी कभी आना, और फिर कुछ घंटे रुक कर वापिस भी जाना,जिस घर मे आपका बचपन बीता,वहाँ  मेहमान बन कर आना,ये सब सोच कर यहाँ कैसा महसूस होता है? मैं ये जानना चाहता हूँ? 


वो  सिर्फ कह रहा था लेकिन सुरभि महसूस कर रही थी, बहुत ही भावुक होने की कारण वो रो पड़ी, तभी भाई बोला दीदी आप रो मत, । मैं तो सिर्फ जानना चाहता था, आपको दुखी करने की मेरी कोई इच्छा नही थी, सुरभि रोते रोते ये ही सोच रही थी की " भाई तुमने जो पूछा, उस पर नही रोई, आँखों मे आँसू तो ज़रा सा प्यार मिलने पर आ ही जाते है, एक शादीशुदा लड़की चाहे उम्र के किसी भी पड़ाव पर हो,पर मायके का मोह छोड़ नही पाती, यहाँ आकर ऐसा लगता है की बचपन मे जीती हूँ। आज चाहें इस घर मे कितनी भी तरक्की हो गई हो पर लड़की का मन उन यादों मे होता है जैसा वो छोड़ कर गई होती है, सबके साथ बैठ कर हँसी ठिठोली करना, ससुराल की ज़िम्मेदारी से थोड़ी देर की लिए खुद को अलग करना, मम्मी की हाथ की चटनी, अचार, आमपापड़ का स्वाद, बड़े भाई का मेरे आने पर स्पेशल समोसे लाना, छोटे बच्चों की साथ गाना गुनगुनाना, नाचना , कहानी सुनाना, भाभियों की साथ बैठकर कुछ उनके मन की सुनना, और अपनी भी सुनाना, कुछ उनसे सीखना कुछ उनको बताना"। 


इतनी सारी बातें मन मे होती है की "पापा की ज़िम्मेदारी हूँ मैं, पर तुमसे भी मेरा रिश्ता है कभी बोझ मत समझना, कुछ माँगने नही आती बेटी या बहन, वो तो सिर्फ देखना चाहती है अपने मायके का खिलखिलाता हुआ खूबसूरत आँगन, और बूढ़े माँ बाबा के चेहरे पर सुकून की ख़ुशी, भाई की आँखों मे बहन का इंतज़ार, बच्चों का बुआ की लिए प्यार, भाभी का सहेली सा बर्ताव । मम्मी - पापा का तो मे अंश ही हूँ  मैं वो मुझे जीवन भर नही भूल सकते, हम भाई बहन के बीच प्यार से गुँथी हुई  इस माला को हमेशा महकते रहना चाहिए,कभी गुस्सा कभी लडाई तो कभी रूठ जाना,  हर बात एक दूसरे से कह लेना पर किसी तीसरे को अपने बीच नही आने देना,हर तरह से मना लेना एक दूसरे को, पर कोई भी दूरियाँ नही बनाना, और हमेशा एक दूसरे की ढाल बन कर रहे,बस इतना चाहती हूँ।

" वृक्ष हो तुम दोनों माँ के घर के आँगन के, और मैं नन्ही सी क्यारी हूँ"तुमको भी खून से  सींचा है और मुझे भी, तुम फलदार और छायादार वृक्ष हो माँ बाबा के लिए, पर मैं भी आँगन की शोभा हूँ, छोटी सी क्यारी भी हरी भरी रहना चाहती है । 

माँ के आँगन मे, बस तुम प्यार की बरसात करते रहना, रक्षाबंधन पर बंधी तुम्हारे हाथों मे वो मेरे प्यार और विश्वास की डोरी ,  तुम्हारे माथे पर लगा वो कुमकुम का टीका तुम्हारा सौभाग्य बनाता है, माथे पर सजे वो चावल की दाने, जो मेरी दुआयों से तुम्हारा अन्न धन भंडार भरते है, खुशियाँ से दामन भरा रहे, चेहरे पर मुस्कान सजी रहे, बूढ़े माँ बाबा की आस बंधी रहे । कभी भी किसी गम की छाया ना आये खुशियाँ तुम्हारे कदम चूम जाए।  बस ये ही सोचती हूँ जितनी ख़ुशी से मैं आज आई हूँ मेरा मान बनाये रखना ,और घर की नन्हे बच्चों को भी मेरे बारे मे बता कर रखना, चिड़ियों सा चहकता रहे, कलियों सा महकता रहे मेरा मायका। इतनी सारी बातें सोचते सोचते कब बचपन मे खो गई, भाभियों ने ढेरों पकवान आगे परोस दिये, सबके साथ मस्ती की मम्मी से बातचीत कर के उनके चेहरे पर ख़ुशी देख कर सुरभि भी खुश थी, अब वापिस आना था, मन कर रहा था रुक जाऊ पर रुक नही सकती थी ससुराल की तरफ भी मन खिचता सा जा रहा था, क्योंकि अकेली आई थी बच्चे साथ नही लाई, इसीलिए लौटना जरूरी था, बच्चों का माँ की बिना कहाँ मन लगता है। 

जब चलने लगी तो माँ बोली" एक दिन रुक जाती  ", पर इतना कह कर चुप भी हो गई क्योंकि वो भी ससुराल की मर्यादा को अच्छी तरह से जानती हैं तभी चलते वक़्त बड़ा भाई बोला " बहन आती रहना" मैंने भी हँसते हुए कह दिया की " भाई बुलाते रहना"। ऐसा बोलना हर बार होता है,बड़ा भाई शायद मज़ाक मे कहता हो, पर सुरभि हमेशा दिल से ही कहती है की " भाई बुलाते रहना "क्योंकि कोई भी शादीशुदा लड़की बिन बुलाये माँ बाबा के घर जाने से हिचकिचाती है,भगवान शिव के समझाने पर भी जब माँ गौरा नही मानी और बिना बुलाये पिता के घर जाने के बाद उन्हें एहसास हुआ ऐसे नही आना चाहिए था, वो तो भगवान थे जब उन्हें सम्मान नही मिला,तो हम तो मानव है हमारी क्या औकात है, बस ये ही मन कह रहा था आती जाती तो मैं रहूँगी, पर तुम भी इतना ख्याल रखना की ज्यादा ना हो चाहे थोड़ा ही सही लेकिन इंतज़ार मेरा करता रहे ऐसा हो मेरा मायका। 

तुम भी उन्हीं माता पिता की संतान हो जिन्होंने मुझे भी जन्म दिया, पर विधि का विधान है की पराये घर की अमानत समझ कर पाली गई और तुम को छाया की लिए पल पल सींचा गया,खुश हूँ ये सोच कर माँ का आँगन कितना हर भरा है, और मेरी उम्र के इक्कीसकी सावन इस घर मे बीते थे, आज भी माँ ने भाई ने मेरे नाम की क्यारी को सूखने नही दिया, बस इन सब बातों मे समय बीत गया पर सब से मिल कर अच्छा लगा, जितना सुरभि ने अपने मन मे बोला,उन किसी से बोला नही,पर वो चाह रही थी की मेरे अपने बिना कहे सब समझ जाए,फिर सबको आँखों मे भर कर तमाम खुशियाँ समेटती हुई वो अपने घर वापिस आ गई। 


रास्ते मे आते आते सुरभि ये ही सोच रही थी की " भाई इतना कुछ सोचा तुमने मेरे लिए, तो मेरे बिना बोले मेरे मन की बात भी सुन लेना। 

"यूँही खुशियोँ से सजता रहे मेरा मायका "।। 

ये भावनाएं सिर्फ सुरभि की ही नही दुनियाँ की सभी लड़की शादी हो जाने के बाद ऐसा ही सोचती है, की उनका मायके मे खुशियाँ महकती रहे, बड़े बड़े पेड़ों की छाया के साथ नन्ही नन्ही क्यारी भी हरी भरी रहें।। 

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