टूटती चूड़ियाँ

 

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बहुत मुश्किल होता है अपनी आँखों से किसी मंजर को ना चाहते हुए भी देखना। आज की कोई नई रीत नही है ये, बरसों से चली आ रही है, क्यों ढो रहे है हम सब यह दर्द भरी रीत ?

दीपा के पिता के जाने के बाद खुद को संभाल लिया उसने,पर दर्द को इस तरह से सीने मे छुपा रखा है, जैसे समुंदर की लहरें चट्टान तोड़ दें। माँ को भी संभाल ही लिया था उसने,पर अनकहे शब्द उसको आज भी चीख़ कर रोने को बेबस कर देते है। सब कुछ जानता है मन की " मृत्यु ही एक अंतिम सत्य है, जीवन सिर्फ एक भ्रम है जिसमे हम जीते है " सब कहने की बातें है की मोह छोड़ दो जीवन आसान हो जायेगा, मोह इतनी आसानी छूटता कब है?


 दीपा मेरी बहुत अच्छी सहेली है हम बचपन से अब तक अपनी दोस्ती को बाखूब निभा रहें हैं, अपने पिता जी को खो देने के बाद ,वो बहुत निराश रहने लगी, मन मेरा भी कुछ कम परेशान नही था। परंतु  वह अपने घर मे सबसे बड़ी होने के नाते शांत रहकर घर को संभाल रही थी पर उसका मन बहुत सारे प्रश्नो से भरा हुआ था । 


एक दिन हम दोनों साथ बैठे बातें कर रहे थे और वो मुझसे बोली की "माँ का सूना माथा, बिना चूड़ियों के उनके वो सूने हाथ और उनकी सूनी मांग जो सिंदूर से चमकती थी, अब तो काफी वक़्त बीत चला है, फिर भी माँ के चेहरे का सूनापन आज भी यूँही बरकरार है। हर किसी के घर मे माँ  बाबा से ही रौनक सी रहती है, पर सोचती हूँ पापा रहे नही, माँ का सूनापन घर की रौनक भी ले चला, और आज तक भी वो खालीपन भर नही सका "  और इतना कह कर खूब रोने लगी, मैंने भी चुप नही कराया, सोचा की जी भर कर रोने दूँ, मन हल्का हो जायेगा। पर उसकी सभी बातें मुझे भी परेशान कर रही थी की..... हाँ जो भी तुमने कहा वो सब सच है की किसी की जाने की बाद का खालीपन की भी कभी भी भर नही सकता। 


इन सब बातों को करते करते मेरे गले लग कर खूब रोई और कहने लगी की "पापा के ना होने का एक भ्रम बहुत तेज़ी से टूट जाता है जब कभी माँ को देखती हूँ । पर ऐसा लगता है पापा यहीं है हमारे आस पास पर हम देख नही पाते" मैं चुपचाप उसको सुनती रही  और मन मे न जाने कितने सवाल थे,जिनका जवाब मेरे पास नही था, मन बस बार बार ये ही सोच रहा था की,प्यार अटूट् है, मन मोही है, प्यार एक श्रृंगार  है, प्यार कभी मरता नही मिटता नही है, फिर क्यों इस प्यार के श्रृंगार को मिटा दिया जाता है? 


मैं मूर्ख, अज्ञानी हूँ , और माफ़ी मांगती हूँ अपने सभी पूर्वजों से , नही जानती मैं इन सब रीति रिवाजो का मूल कारण.......! पर सिर्फ ये आघात दिल को बहुत ठेस पहुँचता है की किसी मरने वाले के दुख से ज्यादा दुख किसी जीवित  को पल पल मरते देखना.... । 


दीपा के पिताजी की अंतिम यात्रा के समय मैं एक कोने मे खड़ी ये सब देख रही थी, की मृत्यु हो जाने के बाद  किस तरह से जो रीति रिवाज और रस्में निभाई जाती हैं,उसकी माँ की बिंदी उतार कर उसके पिता जी के मृत शरीर पर रख दी, फिर माँ की हाथ की काँच की चूड़ियाँ जो साधारण तरीके से उतारी भी जा सकती थी, परन्तु उसको जबरन चाचा जी की हाथों से तुड़वाया गया ,एक पत्थर से चूड़ियाँ तोड़े जाने पर उसकी माँ की चीख़ " मेरी चूड़ियाँ मत तोड़ो, नही नही....... नही मत तोड़ो" ये आवाज़ दिल को देहला देने वाली थी, और चूड़ियों के तोड़े जाने पर उसकी माँ के हाथों मे चूड़ी के टूटे काँच से चोट लगने पर निकलने वाला खून  अपना दर्द बयाँ कर रहा था,आस पास बैठे सभी लोगो की नज़रों का उसकी माँ के चेहरे पर निगाह बनाये रखना, आज भी सोचती हूँ उस पल को,तो बहुत डर लगता है मुझे, पास मे बैठी किसी बुढी औरत का, उसकी माँ की मांग से सिंदूर पोछ देना। ये सब बातें मुझे कचोटती हैं , कौन बना गया इन रिवाज़ों को? क्यों किसी जीवित आत्मा को बेवजह मार देते हैं ? क्या फायदा है ऐसे रिवाज़ों का जो किसी के जीवन की खुशियाँ छीन लें? 


इन सब बातों का कोई आधार नहीं, पिताजी के न होने पर बच्चे माँ मे खुशियाँ ढूँढते है, पर माँ के चेहरे की उदासी बच्चों को समय से पहले परिपक्व कर देती है बचपन कहीं खो जाता है, माँ के आँसुओ की कोई सरहद नही होती, पर माँ  अपने बच्चों को सीमा मे बाँधे रखती है, 


औरत को उसके इस "विधवा" रूप का एहसास दिला कर उसके टूटे दिल को मत तोड़ो, इस रूप को समेटे कोई भी औरत चाहे किसी भी उम्र की क्यों न हों एक अलग निगाह से देखी जाती है, चाहें देखने वाले का नजरिया प्यार का हो, विश्वास का हो, सम्मान का हो, या नापाक ही क्यों न हो। माथे पर से उतरी हुई बिंदी हज़ार सवाल पैदा कर देती है, सब कुछ तो मिट ही गया होता है, पर ये "प्रेम श्रृंगार " मत मिटाओ....। 


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